मेरी कविता

हवा

वो जब खुश होती है
तो ले आती है
पूरब की नमी , हिमालय की शीतलता
और फूलों की ढेर सारी खुशबुएँ...
जब गुस्सा होती है
तो रेगिस्तान की तपिस
और मरू-प्रदेश की धूल के साथ आती है....
जब चंचल होती है
तो अंग-अंग के साथ
छेड़खानी करती है
कभी बालों तो कभी
कपड़ों से उलझ जाती है ..
और जब वो
नाराज़ होती है
तो पहाड़ों के पीछे जाकर छुप जाती है
चुपचाप बेआवाज़
और तब पसरती है
एक बेचैनी,एक ऊब,एक अकुलाहट
हर ओर चारों तरफ ....!

माँ
माँ...
कैसे भूल पाऊंगा तुम्हें
तुम्हारी गोद....
तुम्हारा आंचल...
कैसे भूल पाऊंगा
तुम्हारी छाती
जहाँ से जीवन-धारा फूटती थी...
माँ...
तुम एक पेड़ थी...
फलों से लदा पेड़
जो खुद ही
अपनी डाली से फल तोड़
हमारे मुँह में डाल देती थी...
माँ...
तुम एक गौरैया थी...
जो तिनके चुन-चुनकर
घोंसला बनाती रही
और दाने चुग-चुग कर
हमें पालती रही...

माँ
तुम्हारी गोद ही मेरे लिये खुली ज़मीन थी
क्लास –रूम और विछावन थी..
जहाँ मैं खेलता था, पढता था और सो जाता था...
मुझे बताओ माँ
कहाँ से पाया तुमने इतना ममत्व
किससे सीखा आँसुओं को पी जाना
कौन सीखाता है तुम्हे जीना...
मैं जानता हूँ
तुम नहीं बताओगी
लेकिन मैं जान गया हूँ माँ..
देह ही तुम्हारा विद्यालय रहा
और दर्द ही तुम्हारा शिक्षक.....!

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