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जून, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मेरी कविता

हज़ारों की भीड़ में तलाश रहा हूँ एक कांधा जिसपर सर रख रो सकूँ.... कोई दामन जिसपर दो बूँद आसूँ के गिरा सकूँ... कोई हाथ जिसे थाम किसी का हमराह बन सकूँ... एक कोना जहाँ अपनी महबूब के साथ बातें कर सकूँ.... थोड़ी सी ज़मीं जिसमें सपने वो सकूँ... कुछ गीली मिट्टी जिससे रच सकूँ दुनिया की सबसे मजबूत और खुबसूरत स्त्री... इस कोलाहल में तलाश रहा हूँ कुछ सुर जिस पर अपने दर्द के बोलों को गा सकूँ कुछ ताल जिसपर थिरक सकूँ.......

मेरी कविता

बाबा लौट आना चाहता हूँ मैं एक दिन पगडंडियों के रास्ते तुम्हारे खेतों तक... खेलना चाहता हूँ लुका-छिप्पी तुम्हारे खलिहान में... माँ मेरी लौट आना चाहता हूँ मैं एक दिन रोटी की गन्ध के सहारे तुम्हारे चूल्हे तक... धुँयें के साथ साथ उठना चाहता हूँ आकाश के विस्तार तक... मेरे दोस्त लौट आना चाहता हूँ मैं एक दिन कांच की गोलियों के साथ तुम्हारी गलियों में... सींक चक्के के सहारे नापना चाहता हूँ पूरी धरती की गोलाई ....

मेरी कविता

हवा वो जब खुश होती है तो ले आती है पूरब की नमी , हिमालय की शीतलता और फूलों की ढेर सारी खुशबुएँ... जब गुस्सा होती है तो रेगिस्तान की तपिस और मरू-प्रदेश की धूल के साथ आती है.... जब चंचल होती है तो अंग-अंग के साथ छेड़खानी करती है कभी बालों तो कभी कपड़ों से उलझ जाती है .. और जब वो नाराज़ होती है तो पहाड़ों के पीछे जाकर छुप जाती है चुपचाप बेआवाज़ और तब पसरती है एक बेचैनी,एक ऊब,एक अकुलाहट हर ओर चारों तरफ ....! माँ माँ... कैसे भूल पाऊंगा तुम्हें तुम्हारी गोद.... तुम्हारा आंचल... कैसे भूल पाऊंगा तुम्हारी छाती जहाँ से जीवन-धारा फूटती थी... माँ... तुम एक पेड़ थी... फलों से लदा पेड़ जो खुद ही अपनी डाली से फल तोड़ हमारे मुँह में डाल देती थी... माँ... तुम एक गौरैया थी... जो तिनके चुन-चुनकर घोंसला बनाती रही और दाने चुग-चुग कर हमें पालती रही... माँ तुम्हारी गोद ही मेरे लिये खुली ज़मीन थी क्लास –रूम और विछावन थी.. जहाँ मैं खेलता था, पढता था और सो जाता था... मुझे बताओ माँ कहाँ से पाया तुमने इतना ममत्व किससे सीखा आँसुओं को पी जाना कौन सीखाता है तुम्हे जीना... मैं जानता हूँ तुम नहीं बताओगी लेकिन मैं जान गया हूँ म

मेरी कविता

(गुजरात के दंगे से आहत हो कर) मैं अमन का परिन्दा फिर रहा हूँ मारा –मारा.. छीन चुकी मुझसे मेरी डाल तिनके –तिनके चुनकर जहाँ बनाया था अपना घोंसला... बिखर चुकी मेरे ख्वाबों की वो तस्वीर जहाँ मैंने रचा था रिश्तों की गर्माहट से एक दुनिया... भटक रहा हूँ यहाँ –वहाँ एक डाल की तलाश में जहाँ बसा सकूँ फिर से अपना बसेरा पा सकूँ फिर से रिश्तों की गर्माहट... प्यारी नींद जहाँ चुपके से गबे पांव आंखों में उतर आए एक ऐसी दुनिया..। जानता हूँ एक दिन बसा लूँगा अपनी दुनिया किसी पीपल की छांव मगर जब भी पूर्वा के झोंके आयेंगे मेरी नींद में पूराने रिश्ते एक चीख बन उतर जायेंगे कैसे भूल पाऊँगा मैं उस चीख को उम्र भर ...!

आग और औरत

जिस आग को औरतों ने सदियों तलक अपने दामन में छुपा बचाये रखा... हत्यारों ने उसे उसी आग में हर बार जलाया.... कभी सति तो कभी दहेज के नाम पर

मेरी कविता

वो शामें कहाँ गईं जो मेरे चेहरे पर सपने की तरह कभी खिलती थीं... वो सुबहें जो हमारी नसों में ऊर्जा बनकर दौड़ती थीं कहाँ गईं... और वो आसमान जहाँ सात रंगों वाला इन्द्रधनुष खिलता था.. उसे किसने छीना... वो रातें जहाँ रिश्तों की गर्माहट थी नींद जहाँ चुपके से बेआवाज़ पलकों पर बैठ जाती थी कहाँ खो गई वो..... और वो नन्हा सूरज जिसकी नन्हीं किरणें हर रोज़ मेरे बिस्तर पर आकर मुझे जगाती थीं अब क्यों नहीं आती....

मेरी कविता

सूरज जाने कब का डूब चुका है उसकी लाली तक नज़र नहीं आ रही अन्धेरे की धुन्धली चादर आसमान पर पसर चुकी है सामने शहर से दूर कुछ ताड़ के पेड़ दिख रहे हैं काले-काले एक कतार में शांत और गंभीर मैं खड़ा हूँ यहाँ शहर की जगमगाती रौशनी के बीच मगर मेरी नज़रें वहीं उलझी हैं कुछ ढूँढता हुआ सा... क्या है ऐसा उस धुँध में जो बार –बार खींचता है मुझे अपनी ओर...? आज जबकि पूरा शहर मनोरंजन के अत्याधुनिक समानों से भरा पड़ा है क्यों मेरी नज़रें बार-बार वहीं अटक जाती हैं क्यों मैं हर शाम निकलता हूँ उस दृश्य की तलाश में...? वहाँ है कुछ माँ की गोद जैसा महबूब की आगोश जैसा कुछ.... छोड़ आया हूँ मैं अपना बहुत कुछ उस धुँधलके में उस पेड़ के ईर्द-गिर्द जो बुलाता है मुझे हर रोज़ शाम होते ही....

अब के बरस भेज भैया को बाबुल / बंदिनी

गीतकार : शैलेन्द्र अब के बरस भेज भैया को बाबुल सावन में लीजो बुलाय रे लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियाँ देजो संदेशा भिजाये रे अब के बरस भेज भैय्या को बाबुल ... अम्बुवा तले फिर से झूले पड़ेंगे रिमझिम पड़ेंगी फुहारें लौटेंगी फिर तेरे आंगन में बाबुल सावन की ठंडी बहारें छलके नयन मोरा कसके रे जियरा बचपन की जब याद आए रे अब के बरस भेज भैय्या को बाबुल ... बैरन जवानी ने छीने खिलौने और मेरी गुड़िया चुराई बाबुल थी मैं तेरे नाज़ों की पाली फिर क्यों हुई मैं पराई बीते रे जग कोई चिठिया न पाती न कोई नैहर से आये,रे अब के बरस भेज भैय्या को बाबुल ...-

क्या लिखूं ..?

बहुत दिनों से ब्लॉग पे कुछ लिखा नही ...मन तो बहुत करता है ब्लॉग लिखने और पढने का ..मगर कुछ अपनी परेशानियां हैं ...खैर ..परेशानियां तो लगी ही रहती हैं ...मगर इंसान जीना तो नही छोड़ता ना ....आज ब्लॉग खोला हूँ इस उम्मीद से किआज कुछ लिख पाउँगा ...मन में कई भाव उठा रहे हैं ...कहाँ से शुरू करूँ समझ में नही आ रहा ....मन की बात लिखूं या ज़माने की ......ये भी क्या बात हुई मन और ज़माना अलग -अलग हैं क्या ...?...दोनों तो एक -दुसरे से जुड़े हुए ही है ...मन ज़माने को प्रभावित करता है ..और ज़माना मन को...वो कहते हैं ना कि मन चंगा तो कठौती में गंगा...बाकी आगे सब साफ़ है ...कहने की ज़रूरत नही ...!...देखिये लिखते -लिखते लिखने का विषय मिल गया ...बिहार ...अपने बिहार के बारे में कुछ लिखने का मन कर रहा है ....सुना है बिहार बहुत तेज़ी से तरक्की कर रहा है ...जो लोग भी बिहार से आते हैं ..उनका कहना है कि बिहार का बहार ही कुछ और है ...हर तरफ़ विकास का माहौल बना है ....दूर -दूर तक चौडी सड़कें ...बड़े-बड़े पुल ....बहुत सारे लोगों को नौकरी ....ये सब सुन मन खुशी से नाच उठता है .....