मेरी कविता

(गुजरात के दंगे से आहत हो कर)
मैं अमन का परिन्दा
फिर रहा हूँ मारा –मारा..
छीन चुकी मुझसे मेरी डाल
तिनके –तिनके चुनकर
जहाँ बनाया था
अपना घोंसला...
बिखर चुकी मेरे ख्वाबों की वो तस्वीर
जहाँ मैंने रचा था
रिश्तों की गर्माहट से एक दुनिया...
भटक रहा हूँ यहाँ –वहाँ
एक डाल की तलाश में
जहाँ बसा सकूँ फिर से अपना बसेरा
पा सकूँ फिर से रिश्तों की गर्माहट...
प्यारी नींद जहाँ चुपके से
गबे पांव आंखों में उतर आए
एक ऐसी दुनिया..।
जानता हूँ एक दिन
बसा लूँगा अपनी दुनिया
किसी पीपल की छांव
मगर जब भी पूर्वा के झोंके आयेंगे
मेरी नींद में पूराने रिश्ते
एक चीख बन उतर जायेंगे
कैसे भूल पाऊँगा मैं
उस चीख को उम्र भर ...!

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