मेरी कविता

सूरज जाने कब का डूब चुका है
उसकी लाली तक नज़र नहीं आ रही
अन्धेरे की धुन्धली चादर
आसमान पर पसर चुकी है
सामने शहर से दूर
कुछ ताड़ के पेड़ दिख रहे हैं
काले-काले एक कतार में
शांत और गंभीर
मैं खड़ा हूँ यहाँ
शहर की जगमगाती रौशनी के बीच
मगर मेरी नज़रें वहीं उलझी हैं
कुछ ढूँढता हुआ सा...
क्या है ऐसा उस धुँध में
जो बार –बार खींचता है मुझे अपनी ओर...?
आज जबकि पूरा शहर
मनोरंजन के अत्याधुनिक समानों से भरा पड़ा है
क्यों मेरी नज़रें बार-बार वहीं अटक जाती हैं
क्यों मैं हर शाम
निकलता हूँ
उस दृश्य की तलाश में...?
वहाँ है कुछ
माँ की गोद जैसा
महबूब की आगोश जैसा कुछ....
छोड़ आया हूँ
मैं अपना बहुत कुछ
उस धुँधलके में
उस पेड़ के ईर्द-गिर्द
जो बुलाता है मुझे
हर रोज़
शाम होते ही....

टिप्पणियाँ

M VERMA ने कहा…
उस दृश्य की तलाश में...?
===
भावभीनी रचना. ज़मीन की तलाश की छटपटाहट -- चित्र तो बहुत शानदार --
बहुत खूब

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