मेरी कविता

हज़ारों की भीड़ में तलाश रहा हूँ
एक कांधा
जिसपर सर रख रो सकूँ....
कोई दामन
जिसपर दो बूँद आसूँ के गिरा सकूँ...
कोई हाथ
जिसे थाम
किसी का हमराह बन सकूँ...
एक कोना
जहाँ अपनी महबूब के साथ बातें कर सकूँ....
थोड़ी सी ज़मीं
जिसमें सपने वो सकूँ...
कुछ गीली मिट्टी
जिससे रच सकूँ
दुनिया की सबसे
मजबूत और खुबसूरत स्त्री...
इस कोलाहल में
तलाश रहा हूँ
कुछ सुर
जिस पर अपने दर्द के बोलों को गा सकूँ
कुछ ताल
जिसपर थिरक सकूँ.......

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