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द ग्रेट डिक्टेटर की आखिरी स्पीच

चार्ली चैप्लिन मुझे मांफ़ कीजियेगा...किन्तु मैं कोई सम्राट नहीं बनना चाहता... यह मेरा काम नहीं... मैं किसी पर शासन करना या किसी को जीतना नहीं चाहता... मैं हर किसी की सहायता करना चाहता हूं... हर संभव- यहूदी... जेंटाइल... काले... सफ़ेद ...सबकी...! हम सब एक –दूसरे की सहायता करना चाहते हैं... आदमी ऐसा ही होता है... हम एक –दूसरे की खुशियों के सहारे जीवन चाहते हैं, दुखों के नहीं... हम आपस में नफ़रत या अपमान नहीं चाहते... इस दुनिया में हर किसी के लिये जगह है... यह प्यारी पृथ्वी पर्याप्त संपन्न है और हर किसी को दे सकती है... ! ज़िन्दगी का रास्ता आज़ाद और खूबसूरत हो सकता है... पर हम वो रास्ता भटक गये हैं... लोभ ने मनुष्य की आत्मा को विषैला कर दिया है... दुनिया को नफ़रत की बाड़ से घेर दिया है... हमें तेज़ कदमों से पीड़ा और खून-खराबे के बीच झटक दिया गया है... हमने गति का विकास कर लिया है... लेकिन खुद को बन्द कर लिया है... ! इफ़रात पैदा करने वाली मशीनों ने हमें अनंत इच्छाओं के समन्दर में तिरा दिया है... हमारे ज्ञान ने हमें सनकी, आत्महन्ता बना दिया है...हमारी चतुराई ने हमें कठोर और बेरहम..

मगही भाषा एवं साहित्य: बिहार के प्रथम फिल्मकार और मगही फिल्म के निर्माता गिरिश रंजन

मगही भाषा एवं साहित्य: बिहार के प्रथम फिल्मकार और मगही फिल्म के निर्माता गिरिश रंजन

भोजपूरी फ़िल्मों के लिये नई ज़मीन की तलाश करती “ सईंया डराईवर बीवी खलासी”

बहुत दिनों बाद एक भोजपूरी फ़िल्म देखने का मौका मिला... आम तौर पर भोजपूरी फ़िल्में मैं नहीं देखता ... उसकी सबसे बडी वजह है.... भोजपूरी फ़िल्मों का मेरी उम्मीद पर खरा नहीं उतर पाना.... जब भोजपूरी फ़िल्मों की फ़िर से हवा चली थी ...तो मुझे लगा था कि भोजपूरी फ़िल्में दर्शकों की उस भूख को मिटा पाने मे सफ़ल होगी ...जिसके कारण दर्शक उसके करीब आये.... भोजपूरी के करीब दर्शकों के आने का सबसे बड़ा कारण मेरे अनुसार ... हिन्दी फ़िल्मों से हिन्दुस्तान का गायब होना था... हिन्दी फ़िल्में हमारे देश के रियल इमोशन से दूर चली गई थी... और एक ऐसी दुनिया का निर्माण करने लगी थी...जहां हिन्दुस्तान का काम आदमी अपने आप को फ़िट नहीं कर पा रहा था...! मगर भोजपूरी फ़िल्मों ने उन दर्शकों के साथ क्या किया... उम्मीद से देख रहे उन दर्शकों के सामने हिन्दी फ़िल्मों की घटिया संस्करण प्रस्तुत किये.... जिसकी न मेकिंग अच्छी थी ...न एक्टिंग...और ना ही कहानी... यहां आकर भी दर्शक ठगा सा महसूस करने लगा...खैर...! मगर ये फ़िल्म “सईंया ड्रायवर बीबी खलासी” उन फ़िल्मों से हट कर है.... किसी फ़िल्म को देखने लायक अगर कोई चीज
मैं और तुम मैं अक्सर सोचता हूं तेरे –मेरे संबंधों के बीच सिर्फ़ रोजमर्रे की ज़रूरतें हैं या कुछ और...? कम होती चाय की मिठास बेस्वाद होती सब्जियां मंहगे होते रसोई गैस हैं या कुछ और...? मुझे इंतजार है उस दिन का जब मैं घर लौटूं तुम सवाल बन तीर की तरह सीने में नहीं चूभो बल्कि खुश्बू बन सांसों में समा जाओ.... राह तक रहा हूं उस पल की जब कम होती चाय की मिठास तेरे प्यार से पूरी हो जाये...! मैं जानता हूं तुम जैसी हो...बन गई हो उसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं.. ये तो कोई और है जो अलग कर रहा है...तेरी-मेरी सांसों से खुश्बुओं को.... हमारी आंखों से चुरा रहा है सपने उस नशे को जो सुरुर बन छाता रहा है हमारे तन–मन पर... हम जानते हैं कौन चूरा रहा है हमारे जीवन से संगीत कौन कर रहा है कसैला हमारा स्वाद...? कौन बनाकर कठपुतली नाचा रहा अपने इशारे पर... कौन दूर कर रहा हमें हमारी विशालता हमारी विराटता से... बना रहा लघु से लघुतर हमारे पहाड़ों को कौन रहा तोड़ जंगलों को कौन रहा काट ... उस शत्रु की गंध पहचान सकता हूं मैं... अब लड़ना ही होगा