गोदान, मैला-आंचल से वंचित पीढ़ी


गोदान, मैला-आंचल से वंचित पीढ़ी 
देश में अंग्रेज़ी को लेकर बहुत पहले से ललक रही है...! मगर उदारीकरण के बाद ये ललक लालच में बदल गई है...! जिसके परिणाम स्वरूप हर शहर,कस्बा यहां तक कि गांव में अंग्रेज़ी स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह उग आये हैं...! जिसे देखो अंग्रेज़ी स्कूल में अपने बच्चे को पढ़ाने के लिये मरा जा रहा है...! किस स्कूल की पढ़ाई कैसी है, व्यवस्था कैसी है..ये कोई नहीं देखता बस माध्यम अंग्रेज़ी होना चाहिये...! आखिर अंग्रेज़ी के पीछे भागने का कारण क्या है...? ज़ाहिर है अंग्रेज़ी का अंतर्राष्ट्रीय भाषा होना...! लोगों को ऐसा लगता है जैसे सारी समस्याओं का समाधान अंग्रेज़ी भाषा कर देगी...! लोगों को ये समझ में क्यों नहीं आता कि भाषा अपने आप में कुछ नहीं होती, उसके पीछे का भाव ही सब कुछ होता है...! जो किसी भी भाषा में एक समान होता है...! किसी भी समाज की भाषा उस समाज के इतिहास और संस्कृति की वाहक होती है...! एक भाषा के मरने का मतलब उस समाज के इतिहास और संस्कृति का अंत...! अगर कोई इंसान हिन्दी नहीं जानता है इसका मतलब ये हुआ कि उसके भीतर से हिन्दी समाज के इतिहास और संस्कृति का अंत...! पहले भी लोग अंग्रेज़ी सीखते थे, मगर उनके भीतर हिन्दी को लेकर बेरूखी का भाव नहीं था... लोग हिन्दी भी बहुत अच्छा लिख-पढ लेते थे, उनकी हिन्दी भी उतनी ही अच्छी होती थी जितनी की अंग्रेज़ी...! वे हिन्दी और अंग्रेज़ी के साहित्य सामान रूप से पढ़ा करते थे... मगर आज अंग्रेज़ी का इतना आतंक है कि लोग हिन्दी भी रोमन लिपि में पढ़ रहे हैं... क्योंकि हिन्दी पढ़ने में उन्हें दिक्कत आ रही है...! मेरे एक रिश्तेदार की बेटी है,वो अंग्रेज़ी के बहुत ही प्रतिष्ठित स्कूल में पढ़ती है... मैंने कई बार कोशिश की कि जो कहानी या कविता मुझे अच्छी लगती है उसे भी पढ़ने को दूं... मगर हिन्दी के नाम पर ही वो मुंह बना देती है... कहती है पढ़ने में दिक्कत होती है... और उसके ये कहने में एक अभिमान भी छुपा होता है...! मैंने उसे कई बार कहा है कि बड़ी शर्म की बात है कि तुम हिन्दी पढने में सहज नहीं हो...! इसपर वो उल्टा मेरे ऊपर ही इल्जाम लगा देती है कि आप अंग्रेज़ी विरोधी हैं... जबकि मैंने उसे कितनी बार समझाने की कोशिश की है कि मैं अंग्रेज़ी विरोधी नहीं हूं...बल्कि हिन्दी की कीमत पर अंग्रेज़ी अपनाने का विरोधी हूं...जो तुम कर रही हो...! मुझे भला किसी भाषा से क्यों विरोध होगा... इंसान जितनी भाषाएं जान सके उतना ही अच्छा...! मुझे उसपर दया आती है कि वो “गोदान” नहीं पढ़ पायेगी, “मैला-आंचल” के मजे नहीं ले पायेगी और “आधा-गांव” से अपरिचित रह जायेगी...! निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन की काव्य रचना की खुश्बू उस तक नहीं पहुंच पायेगी...! इतना ही नहीं अपने वर्तमान के मोहपाश में बंधी, आज की इस अंग्रेज़ीदां पीढ़ी को अपने अतीत से भी कोई मोह नहीं, वो अपने से पहले की पीढ़ी के अनुभव के लाभ भी नहीं उठाना चाहती... ! एक दिन वो आज के दौर के फ़िल्मी गीतों को सुन रही थी और मुझे भी सुना रही थी ... मैंने उसे कहा कि ये तो ठीक है मगर कुछ पहले के गीत भी सुनो... मैंने उसे “बाज़ार” फ़िल्म का प्यारा सा गीत “फ़िर छीड़ी बात रात फ़ूलों की” सुनाया, उसे मज़ा नहीं आया...! फ़िर “रिमझिम गिरे सावन,सुलग-सुलग जाये मन” सुनाया उसे ये भी अच्छा नहीं लगा...! और जब मैंने उसे “दो बीघा ज़मीन” का “अपनी कहानी छोड़ जा,कुछ तो निशानी छोड़ जा,कौन कहे इस ओर तू फ़िर आये ना आये,मौसम बीता जाये” सुनाया तो वो जैसे कराह उठी, बोला ये सब गाने मैं कैसे सुन सकती हूं...! और उसने अपनी मां से कहा कि अंकल मुझे अपने रंग में रंगना चाहते हैं...! जबकि मेरा मकसद उसे सिर्फ़ उन अच्छी चीजों से जोड़ना था जिनपर उसकी नज़र नहीं जा रही थी...! जो इस शोर और कोलाहल की वजह से उस तक पहुंच नहीं पा रही थी... ! मगर उसके भीतर एक अहम बोध था कि वो सबसे रिच समय में जी रही है... और ये समय पुराने से बेहतर है....! हर किसी को अपने समय से मोह होता है...हमारी पीढ़ी को भी है , लेकिन हम इतने अंधे नहीं हुये कि पलट कर पीछे ना देख सकें ... हमारी पीढ़ी जिस समय में बड़ी हो रही थी वो ८०-९० का दशक था... मगर हमें ६० के दशक के गीत भी उतने ही अच्छे लगते हैं...बल्कि ज्यादा , क्योंकि ६० के दशक के गीत-संगीत ज्यादा अच्छे थे...! तो बात दौर की नहीं बल्कि अच्छे संगीत और उसकी पहचान की है...! मुझे दुख के साथ कहना पड रहा है कि अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल एक ऐसी नस्ल गढ़ रहा है जो अपने इतिहास और संस्कृति से वंचित हैं...
रविशंकर कुमार



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