युद्ध नहीं, प्रेम की तलाश

युद्ध नहीं, प्रेम की तलाश

कला और जीवन का साथ पतंग और डोर जैसा है...! जब तक पतंग डोर से बंधी रहती है ऊपर उठती जाती है , जैसे ही डोर का साथ छुटता है, पतंग नीचे गिरने लगती है ! फ़िल्म विधा पर भी यही नियम लागू होता है...! टेक्नालाजी ने आज पूरी दुनिया के सिनेमा को हमारे बेड रूम तक पहुंचा दिया है...घर बैठे हम भिन्न-भिन्न देशों का सिनेमा देखते और उसकी आपस में तुलना भी करते हैं... पिछले दिनों मुझे ईरान की फ़िल्में देखने का मौका मिला...मैंने ईरानी फ़िल्मकार माजिद मजिदी की सारी फ़िल्में देख डालीं- चिल्ड्रेन्स आफ़ हिवेन,सांग आफ़ स्पैरो, कलर्स आफ़ पाराडाईज,द विलो ट्री , बरान और द फ़ादर...! माजिद मजिदी की फ़िल्में एक अलग ही दुनिया से परिचय कराती हैं. एक ऐसी दुनिया जो मानवीय संवेदना से भरपूर है,जो हमारी नीजी जरूरतों और उसके पाने के संघर्ष से बनी है...! दूसरी दुनिया इसलिये ...क्योंकि अब तक जो सिनेमा मेरी नजरों से गुजरा है ,उनमें हिन्दुस्तानी सिनेमा और हालीवुड का सिनेमा प्रमुख है ... अगर कुछ फ़िल्मों को छोड़ दें तो हिन्दी और हालीवुड का सिनेमा सुन्दर दुनिया से दूर जा चुका है ! हिन्दुस्तानी सिनेमा जहां अपने समाज से कट कर अवास्तविक हो चुका है...और हालीवुड के पीछे भागने के चक्कर में उसका घटिया संस्करण मात्र बनकर रह गया है...! वहीं हालीवुड का सिनेमा पैसे और उन्न्त तकनीक के नशे में चूर, लोगों को डराने में और तरह तरह के काल्पनिक चरित्र , जानवर, कीड़े- मकोड़े गढकर झूठ का रोमांच गढने में लगा है और नकली युद्धों को दिखा-दिखाकर मनुष्य के भीतर छुपे हिंसक प्रवृति को बढावा दे रहा है... ! वहीं पर ईरान के फ़िल्मकारों ने अपने समाज को समझा है... उनका सिनेमा उसी का प्रतिरूप है...! माजिद अपनी फ़िल्मों में, जो सुन्दर है उसकी तलाश करते , और उसे दुनिया के सामने लाते दिखते हैं... वो एक ऐसा संसार रचते हैं जिनके पात्र ,किसी लूट किसी साजिश के हिस्सा नहीं हैं... वे ना तो किसी को डराने में लगे हैं...ना ही झूठे रोमांच पैदा करने में ...ना ही किसी युद्ध को बढावा देने में ... और ना ही किसी को जीतने में यकीन करते हैं... उनके पात्र इतने प्यारे हैं कि भुलाये नहीं भुलते ... चिल्ड्रेंस आफ़ हिवेन का नायक जो कि एक बच्चा है... उसे रेस में जूते जीतने हैं...क्योंकि वे जूते उसकी जरूरत हैं... और इसके लिये वो तीसरे पायदान पर आना चाहता है...जबकि उसके आगे के दो पायदान पर इससे बड़े और कीमती ईनाम हैं...मगर वो उसे नहीं चाहिये...क्योंकि वो उसकी जरूरत को पूरा नहीं करते....! हाय रे भोला मन ... ! दुनिया की सारी लड़ाईयां इसलिये हैं...कि हम अपनी जरूरतों को नहीं जानते... हमें अपनी जरूरतों से ज्यादा चाहिये...और इसके लिये हम कुछ भी करने को तैयार है... काश कि हम अपने आपको अपनी जरूरतों तक सीमित रख पाते... तो दुनिया की सूरत ही कुछ और होती...! ”सांग आफ़ स्पैरो” में माजिद ने ग्रामीण और शहरी जीवन के द्वन्द्व  को दर्शाते हुये ये दिखाया है कि कैसे शहर की भीड़,भागमभाग,शोरोगुल हमारे भीतर के भोलेपन को ईमानदारी को नष्ट कर रहा है, हमारे अन्दर जो उदात्त है, मिलजुल कर रहने और परस्पर सहयोग की भावना है उसका गला घोंट रहा है...! शहर के बंद और तंग गलियों, मकानों में रहते लोग कैसे विशालता से कट कर लघु मानव में तब्दील होते जा रहे हैं...!
 पूरी दुनिया में दो तरह की शक्तियां सक्रिय हैं...एक जो सारे संसाधनों का दोहन करने में लगी हैं...तो दूसरी संसाधनों का सीमित उपयोग करते हुये उसे बचाये रखने ...बल्कि उसमें और इजाफ़ा करने के तरीके खोजने में लगी है... माजिद की फ़िल्में दूसरे जमात के लोगों के साथ खड़ी दिखती हैं... जो दुनिया को रचने और उसे और सुन्दर बनाने की तरफ़ ले चलने की बात करती हैं... वो हमें साफ़ साफ़ ये कहती हैं...कि अगर हम इस रास्ते चले तो दुनिया सुन्दर बनेगी...और बची रहेगी ! कला का महत्व तभी है...जब वो हमारी ज़िन्दगी को बेहतर बनाने में अपना योगदान करे... नहीं तो वो एक चुटकुले के अलावा और कुछ नहीं... ! हमें इस बात का दुख है कि दुनिया में सबसे ज्यादा देखा जाने वाला हालीवुड का सिनेमा आतंक,भय, युद्ध और हिंसा परोसने में लगा है ...! अगर मैं कड़े शब्दों में कहूं कि हालीवुड का सिनेमा अमेरिकी हथियारों के लिये बाजार बनाने का काम करता है तो गलत नहीं होगा .... बहुत लोगों को इस कथन से आपत्ति हो सकती है.. उनकी आपत्ति अपनी जगह...क्योंकि मैं १००% हालीवुड की फ़िल्मों के बारे में ऐसा नहीं कह रहा हूं...मगर ज्यादातर फ़िल्में ऐसी ही हैं...! अंत में यही कहूंगा कि हिन्दुस्तानी फ़िल्मकारों को हालीवुड से नहीं बल्कि माजिद मजिदी जैसे ईरानी फ़िल्मकारों से सीखने की जरूरत है...!

- रविशंकर

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