तन थिरकते हैं पर मन नहीं

तन थिरकते हैं पर मन नहीं

इंसान जन्म के साथ ही संगीत अपने साथ लाता है, ताउम्र उसी में जीता है, जीने की प्रकिया में उसका विस्तार करता है ! अपने सुख, अपने दुख, अपने हर्ष, अपने उल्लास को सुर–ताल में बांधना है, और पूरे सामाज के साथ मिलकर गाता है...! और एक ऐसे महौल की रचना करता है जो जीने लायक होता है...! वही माहौल उस समाज की पहचान बन जाता है..! संगीत इंसान के मन का उदगार है... जो कभी दुख तो कभी सुख में व्यक्त होता है...! इंसान जिन परिस्थितियों में जीता है, उन्हीं से गीत-संगीत पैदा करता है...! भोजपूरी के गीत-संगीत भी इनसे अलग नहीं हैं...! भोजपूरी के गीतों में पलायन हमेशा से केन्द्र में रहा है क्योंकि इस समाज के अधिकतर मर्द कमाने के लिये घर- परिवार छोड़कर परदेस जाते रहे हैं  ! भिखारी ठाकुर और महेन्द्र मिश्र के गीतों में इस दर्द को साफ़ तौर पर महसूस किया जा सकता है - सुतले में रहली ननदो , देखली सपनवा, कलकतवा से मोर बलमु अईलन हो राम.../ आई दिन मघवा कपावे लागी मघवा, हड़वा में जड़वा समाई हो विदेसिया...! भोलानाथ गहमरी का एक बिरह गीत है – कौने खोतवा लुकईलु ,आहिरे बालम चिरई ...! इन गीतों में कहीं देह की प्रधानता नहीं है...! लेकिन आज का भोजपूरी गीत मन के भीतर से उतर पर देह के घोड़े पर सवार हो गया है ...! तो क्या इंसान का मन बदल गया है ... क्या समाज अब अपने भीतर नहीं झांक रहा ...? क्या है देह के आकार –प्रकार नापते भोजपूरी गीतों का सच...! इसका जवाब शायद बाजार के पास मिल सके...! जैसे खाने पीने की चीज़ जब इंसान खुद के लिये बनाता है तो उसकी शुद्धता का खास ख्याल रखता है ...लेकिन जब उन्हीं चीजों को बाज़ार में बेचने के लिये उतारता है तो मिलावट करना शुरु करता है...! और अपने माल को बेचने के लिये झूठ-सच कई तरह के हथकंडे अपनाता है...! क्योंकि मुनाफ़ा उसकी पहली शर्त होती है...! भोजपूरी गीतों के साथ भी वही हुआ...! भोजपूरी गीत मुनाफ़े का शिकार हो कर अपनी मिठास को खोता जा रहा है, उसके भीतर ना वो रोमांस रहा, ना वो विरह और ना ही जीवन का उल्लास...! इन सारी चीजों पर देह भारी पड़ गया है...! ना सिर्फ़ गीतों में बल्कि समाज के हर तबके में देह हावी हो गया है...! इसे टी.वी पर प्रसारित होने वाले ऐड से महसूस किया जा सकता है...! मूनाफ़ा खोरी की संस्कृति सबसे ज्यादा हमारे मन पे हमले करती है...क्योंकि मन के भीतर छूपा होता है एक विचार,और विचार के कोने में बिल्ली की तरह दुबका होता है एक विद्रोह...! जो रिजेक्ट करना जानता है...! वो विद्रोह बाजारवाद के मुल्य का सबसे बड़ा दुश्मन है...! इसलिये बाजार चाहता है कि इंसान विचार विहीन हो,ताकि वो कोई चीज खरीदने के पहले सोचे नहीं, उसके मन में हिचक ना हो...! इसके लिये देह से बड़ा हथियार और कौन हो सकता है...! क्योंकि देह इंसान को सबसे पहले आकर्षित करता है...!  देह एक ऐसा समुद्र है, जिसमें सारी सभ्यतायें डूब जाती हैं...! देह विचारशुन्यता को रचता है,और फ़िर विचारशुन्यता देह की ओर लुढकता चला जाता है...! विचारशुन्य समूह का सबसे बड़ा आकर्षण देह होता है...! नतीजा आज भोजपूरी गीतों में देह देह और केवल देह ही दिख रहा है...! ये बाज़ार की साज़िश है, बाज़ार बहुत चालाकी के साथ अपनी चाल चल रहा है और उसमें सफ़ल भी हो रहा है...! पहले लोग हर खुशी के मौके पर खुद साज-बाज के साथ बैठ जाते थे, मगर कई कारणों से अब ये संभव नहीं हो पा रहा, मजबूरन लोग टेक्नोलाजी पर निर्भर हो गये हैं, जो बाज़ार के पास है , और बाज़ार उसका फ़ायदा उठा रहा है... ! भोजपूरी के देह प्रधान गीत ना सिर्फ़ भोजपूर इलाके में बज रहे हैं बल्कि मगह इलाके में भी उतने की बजाये जा रहे हैं...! क्योंकि देह का कोई देश,कोई प्रदेश नहीं होता... सरस्वती पूजा, दूर्गापूजा और होली जैसे पर्व-त्यौहार के अवसर पर लोग डीजे में इन गानों को बजाते हैं थिरकते हैं...इन गानों पर लोगों का तन तो थिरकता है, मगर मन नहीं...!
                 
                  रविशंकर

   

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट