तुम और मैं

मैं अपनी खिड़की से झाँक रहा था...
बाहर अपने बरामदे में
खड़ी थी तू....
न चाँद थी
और नहीं कोई परी थी तू...
सीधी-सादी साधारण सी
एक लड़की थी तू....
मन में असंख्य तरंगें छुपाये
जैसे मैं तुम्हें देख रहा था...
अनगिनत लहरों में डूबती-उतराती
वैसे ही खड़ी थी तू...
मैं तुम्हे देर तक देखता रहा
इस एहसास की लाली
तुम्हारे गालों पर
साफ देखी जा सकती थी...
मेरे देखे जाने तक
तू वैसे ही खाड़ी रही...
मैं चाहता था...तुम्हारे करीब आना
तुम्हे छूना
खूब सारी बातें करना
मगर एक अनजाना डर
रोक रहा था
मुझे भी तुझे भी...

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