मैं और तुम

मैं अक्सर सोचता हूं

तेरे –मेरे संबंधों के बीच

सिर्फ़ रोजमर्रे की ज़रूरतें हैं

या कुछ और...?

कम होती चाय की मिठास

बेस्वाद होती सब्जियां

मंहगे होते रसोई गैस हैं

या कुछ और...?

मुझे इंतजार है उस दिन का

जब मैं घर लौटूं

तुम सवाल बन

तीर की तरह सीने में नहीं चूभो

बल्कि खुश्बू बन

सांसों में समा जाओ....

राह तक रहा हूं उस पल की

जब कम होती चाय की मिठास

तेरे प्यार से पूरी हो जाये...!

मैं जानता हूं

तुम जैसी हो...बन गई हो

उसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं..

ये तो कोई और है

जो अलग कर रहा है...तेरी-मेरी सांसों से

खुश्बुओं को....

हमारी आंखों से चुरा रहा है सपने

उस नशे को जो सुरुर बन

छाता रहा है हमारे तन–मन पर...

हम जानते हैं कौन चूरा रहा है

हमारे जीवन से संगीत

कौन कर रहा है कसैला हमारा स्वाद...?

कौन बनाकर कठपुतली

नाचा रहा अपने इशारे पर...

कौन दूर कर रहा हमें

हमारी विशालता हमारी विराटता से...

बना रहा लघु से लघुतर

हमारे पहाड़ों को कौन रहा तोड़

जंगलों को कौन रहा काट ...

उस शत्रु की गंध

पहचान सकता हूं मैं...

अब लड़ना ही होगा उसके खिलाफ़

निकलना ही होगा अपने-अपने घरों से...

तोड़नी ही होगी ये जड़ता

तब कहीं वापस होगी

चाय की मिठास

सब्जियों का स्वाद

तब कहीं बचेगा पहाड़ों का सौन्दर्य

जंगल की हरियाली

और सबसे बढकर हमारे भीतर की विशालता.....!

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