भोजपूरी फ़िल्मों के लिये नई ज़मीन की तलाश करती “ सईंया डराईवर बीवी खलासी”


बहुत दिनों बाद एक भोजपूरी फ़िल्म देखने का मौका मिला... आम तौर पर भोजपूरी फ़िल्में मैं नहीं देखता ... उसकी सबसे बडी वजह है.... भोजपूरी फ़िल्मों का मेरी उम्मीद पर खरा नहीं उतर पाना.... जब भोजपूरी फ़िल्मों की फ़िर से हवा चली थी ...तो मुझे लगा था कि भोजपूरी फ़िल्में दर्शकों की उस भूख को मिटा पाने मे सफ़ल होगी ...जिसके कारण दर्शक उसके करीब आये.... भोजपूरी के करीब दर्शकों के आने का सबसे बड़ा कारण मेरे अनुसार ... हिन्दी फ़िल्मों से हिन्दुस्तान का गायब होना था... हिन्दी फ़िल्में हमारे देश के रियल इमोशन से दूर चली गई थी... और एक ऐसी दुनिया का निर्माण करने लगी थी...जहां हिन्दुस्तान का काम आदमी अपने आप को फ़िट नहीं कर पा रहा था...! मगर भोजपूरी फ़िल्मों ने उन दर्शकों के साथ क्या किया... उम्मीद से देख रहे उन दर्शकों के सामने हिन्दी फ़िल्मों की घटिया संस्करण प्रस्तुत किये.... जिसकी न मेकिंग अच्छी थी ...न एक्टिंग...और ना ही कहानी... यहां आकर भी दर्शक ठगा सा महसूस करने लगा...खैर...! मगर ये फ़िल्म “सईंया ड्रायवर बीबी खलासी” उन फ़िल्मों से हट कर है.... किसी फ़िल्म को देखने लायक अगर कोई चीज बनाती है तो वो होती है स्क्रीप्ट.... इस मामले में इस फ़िल्म की स्क्रिप्ट न सिर्फ़ हट के है... बल्कि बहुत बढिया ... प्रगतिशील और समाज के एक बहुत बड़े सच को उदघाटित करने वाली है... फ़िल्म की वन लाईन कहानी इस तरह है – दुलरिया के पति की हत्या हो जाती है ...और उसके पिता उसे मायके वापस ले आते हैं... जहां उसके दो भाई और भाभियां उसे बड़े प्यार से रखती हैं... मगर जैसे ही पिता उसके गुजारे के लिये डेढ बीघा जमीन दुलरिया के नाम कर देते हैं....वही भाई भौजाई उसके दुश्मन हो जाते हैं... और तरह तरह के उपाय से उसे घर से दूर कर देना चाहते हैं... ताकी उनकी जमीन बची रह जाये...!....मगर वही बहन हर कदम पर अपने भाई के परिवार के लिये समर्पित रहती है...!
लडकी का पैतृक संपत्ति में अधिकार को लेकर ...शायद ये हिन्दुस्तान की पहली फ़िल्म है.... हिन्दी में भी इस मुद्दे पर कोई फ़िल्म मेरी जानकारी में नहीं बनी है...
आज पैसा कैसे हमारे रिश्तों की गर्माहट को कम कर रहा है ...पैसे के पीछे भागता ये समाज कितना संवेदनहीन हो गया है ... ये फ़िल्म इस विषय पर अच्छे से प्रकाश डालती है...
मगर संवेदनहीन हो चुके ..पैसे के पीछे भाग रहे समाज में दुलरिया भी है ...जिसके लिये रिश्ते अभी भी पैसे से बढकर है...और जो सिर्फ़ जिन्दा रिश्ते ही नहीं मरे हुये रिश्ते को भी निभा रही है... मृत पति से उसका प्रेम आज भी उतना ही है...जितना उसके जिन्दा रहते था....और क्यों न हो...? शादी के तीन सालों में ही उसने दुलरिया को प्यार से इतना भर दिया था ...कि आज भी उसकी स्मृतियां उसे ऊर्जा से भर देती हैं...और यही कारण है कि भाईयों के बार बार कोशिश करने पर भी वो दूसरी शादी से इन्कार कर देती है... और बार बार यही कहती है...अगर कोई मेरे मनपसंद का लड़का दिखेगा ...तो मैं उससे ब्याह कर लूंगी ....किसी से इजाजत भी मांगने नहीं आऊंगी.... ऐसा क्या था दुलरिया के पति में ... ? ऐसा बहुत कुछ था दुलरिया के पति में ...दुलरिया का ट्रक डाईवर पति ने उसे अपने ट्रक पर बैठाकर पूरे हिन्दुस्तान का सैर करवाया था... हर जगह की पसंदीदा साड़ी उसे ला कर दी थी...उनके रिश्ते में कहीं बन्धन नहीं था...बल्कि एक किस्म की उन्मुक्तता थी... उसका पति आम भारतीय पति की तरह उसकी देह पर जबर्दस्ती लदा नहीं रहता था... बल्कि उसकी भावनाओं की कद्र करता था... इससे भी बढकर जब वो मरा ...तो किसी बीमारी या दुर्घट्ना का शिकार होकर नहीं...बल्कि एक अबला लड़की का कुछ लोगों के द्वारा उसका अगवा करना ...उसकी इज्जत कर हाथ डालना उसे बर्दाश्त नहीं हुआ...और वो उसे बचाने के क्रम में उन गुंडे की गोलियों का शिकार हुआ... और एक बहादूर की मौत मरा... ! यही वो चीज है... जो दुलरिया को अपने पति के प्रति गर्व से भर देती है... और यहां पर दुलरिया का प्यार देह से ऊपर उठ जाता है... वो एक विचार बन जाता है.... जिसकी तलाश वो दूसरों में भी करती है...मगर वो नही मिलता ...और वो लगातार शादी से इन्कार करती जाती है.... ये सही भी है... अगर कोई रिश्ता जो स्मृतियां हैं... उससे अच्छी स्मृतियां नहीं दे सकता... फ़िर उन पवित्र स्मृतियों को ...उन दिव्य एहसासों को किसी असहज रिश्ते मे बांधकर खत्म क्यों किया जाय.... दुलरिया को अब इन्तजार है ऐसे लड़के को जो कि उन स्मृतियों को और धनी कर सके... इसी बेहतर की तलाश उसकी उम्मीद के साथ ये फ़िल्म खत्म होती है... फ़िल्म जाने-माने कहानीकार रामधारी सिंह दिवाकर की कहानी पर आधारित है... मगर उस कहानी में बहुत कुछ जोड़ घताव कर इसे एक बेहतर पटकथा का रूप दिया है जाने –माने कवि –कहानीकार निलय उपाध्याय ने... उन्होंने पूरी फ़िल्म में वर्तमान और अतीत को बहुत ही खुबसूरती के साथ पेश किया है.... अंजनी कुमार का निर्देशन भी अच्छा है... उन्होंने अनिनेताओं से अच्छा काम लिया है..... कुल मिलाकर कहें तो ये फ़िल्म उस शिकायत को दूर करती है ...कि भोजपूरी में परिवार के साथ बैठकर देखने लायक अच्छी फ़िल्म नहीं बनती .... ये फ़िल नवम्बर में प्रदर्शित होने वाली है... उम्मीद है दर्शकों को बहुत पसंद आयेगी... अगर ऐसी की कुछ फ़िल्में दो –चार और बन जाय...तो भोजपूरी सिनेमा अपने संकट से ऊपर उठ सकता है...और अपना हस्तक्षेप दर्ज कर सकता है....!

-ravishankar

टिप्पणियाँ

Nilay Upadhyay ने कहा…
bahut achchha likha hai apane..chuki meri film hai isliye jyada nahi likh raha hu
G.S.Ranjan ने कहा…
धन्यवाद रवि जी. सचमुच बहुत आनन्द आय इस फिल्म के निर्माण मे.
anjanikumar ने कहा…
dhanayavad ravi apne samiksha likh kar humlogo ki preshani ko thorha kam kar diya hai ..... is film ke naam ko lekhar logo me alag alag vichar the ... apke samiksha padhne se shayad is naam ko samajh paayen....

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