द ग्रेट डिक्टेटर की आखिरी स्पीच

चार्ली चैप्लिन

मुझे मांफ़ कीजियेगा...किन्तु मैं कोई सम्राट नहीं बनना चाहता... यह मेरा काम नहीं... मैं किसी पर शासन करना या किसी को जीतना नहीं चाहता... मैं हर किसी की सहायता करना चाहता हूं... हर संभव- यहूदी... जेंटाइल... काले... सफ़ेद ...सबकी...!

हम सब एक –दूसरे की सहायता करना चाहते हैं... आदमी ऐसा ही होता है... हम एक –दूसरे की खुशियों के सहारे जीवन चाहते हैं, दुखों के नहीं... हम आपस में नफ़रत या अपमान नहीं चाहते... इस दुनिया में हर किसी के लिये जगह है... यह प्यारी पृथ्वी पर्याप्त संपन्न है और हर किसी को दे सकती है... !

ज़िन्दगी का रास्ता आज़ाद और खूबसूरत हो सकता है... पर हम वो रास्ता भटक गये हैं... लोभ ने मनुष्य की आत्मा को विषैला कर दिया है... दुनिया को नफ़रत की बाड़ से घेर दिया है... हमें तेज़ कदमों से पीड़ा और खून-खराबे के बीच झटक दिया गया है... हमने गति का विकास कर लिया है... लेकिन खुद को बन्द कर लिया है... ! इफ़रात पैदा करने वाली मशीनों ने हमें अनंत इच्छाओं के समन्दर में तिरा दिया है... हमारे ज्ञान ने हमें सनकी, आत्महन्ता बना दिया है...हमारी चतुराई ने हमें कठोर और बेरहम... हम सोचते बहुत ज़्यादा और महसूस बहुत कम करते हैं... मशीनों से ज़्यादा हमें ज़रूरत है इंसानियत की , चतुराई से ज़्यादा ज़रूरत है दया और सज्जनता की... इन गुणों के बिना दुनिया खूंखार हो जायेगी और सबकुछ खो जायेगा... !

हवाई जहाज़ और रेडियो ने हमें और करीब ला दिया है... इन चीज़ों का मूल स्वभाव मनुष्य में अच्छाई लाने के लिये चीख रहा है-सार्वभौमिक बंधुत्व के लिये चीख--हम सबकी एकता के लिये... यहां तक कि इस वक्त हमारी आवाज़ दुनिया के दसियों लाख लोगों तक पहुंच रही है... दसियों लाख हताश पुरुषों,स्त्रियों और बच्चों तक –एक ऐसी व्यवस्था के शिकार लोगों तक जो आदमी को,निरपराध मासूम लोगों को, कैद करने और यातना देने की सबक पढाती है... जो लोग मुझे सुन रहे हैं, मैं उनसे कहूंगा निराश मत हों,पीड़ा का यह दौर जो गुजर रहा है, लोभ की यात्रा है... –उस आदमी की कड़ुवाहट है जो मानवीय उन्नति से घबराता है... इंसान की नफ़रते खत्म हो जायेंगी और तानाशाह मर जायेंगे.... और जिस सत्ता को उन्होंने जनता से छीना है, वो सत्ता जनता को मिल जायेगी.... और जब तक लोग मरते रहेंगे , आज़ादी पुख्ता नहीं हो पायेगी... !

सैनिको...! अपने आप को इन धोखेबाजों के हवाले मत करो, जो तुम्हारा अपमान करते हैं- जो तुम्हें गुलाम बनाते हैं... जो तुम्हारी ज़िन्दगी को संचालित करते हैं... तुम्हें बताते हैं कि क्या करना है... क्या सोचना है...और क्या महसूस करना है...! जो तुम्हारी कवायत करवाते हैं... तुम्हें खिलाते हैं...जानवरों सा व्यवहार करते हैं...और अपनी तोपों का चारा बनाते हैं... खुद को इन अप्राकृतिक लोगों के हवाले मत करो.... मशीनी दिमाग और मशीनी दिलों वाले मशीनी आदमियों के ....! तुम इंसान हो... तुम्हारे दिलों में इंसानियत है... घृणा मत करो...करनी ही है तो बिना प्रेम वाली नफ़रत से करो- बिना प्रेम की , अनैसर्गिक...!

सैनिको... ! गुलामी के लिये मत लड़ो...आज़ादी के लिये लड़ो... सेंट ल्यूक के सत्रहवें अध्याय में लिखा है कि ईश्वर का राज्य आदमी के भीतर होता है....किसी एक आदमी या किसी एक समुदाय के आदमी के भीतर नहीं,बल्कि हर आदमी के भीतर ! तुममें—आप सब लोगों – जनता के पास ताकत है, इस ज़िन्दगी को आज़ाद और खूबसूरत बनाने की ...इस दुनिया को एक अद्भुत साहस में तब्दील करने की... तो लोकतंत्र के नाम पर हम उस ताकत का इस्तेमाल करें...आओ हम सब एक हो जायें...हम एक नई दुनिया के लिये संघर्ष करें... एक ऐसी सभ्य दुनिया ...जो हर आदमी को काम करने का मौका दे...तरुणों को भविष्य और बुजुर्गों को सुरक्षा दे... !

इन्हीं चीज़ों का वादा करके इन घोखेबाजों ने सत्ता हथिया ली... लेकिन वे झूठे हैं... वे अपना वादा पूरा नहीं करते ...वे कभी नहीं करेंगे ... तानाशाह खुद को आज़ाद कर लेते हैं... लेकिन जनता को गुलाम बना देते हैं... हम दुनिया को आज़ाद करने की लड़ाई लड़ें... राष्ट्रीय बाड़ों को हटा देने की ...लोभ... नफ़रत व असहिष्णुता को उखाड़ फ़ेंकने की लड़ाई... एक ऐसी दुनिया के लिये लड़े ...जहां विज्ञान और उन्नति हम सब के लिये खुशियां लेकर आये... सैनिकों...! लोकतंत्र के नाम पर हम सब एक हो जायें...!

हाना, क्या तुम मुझे सुन सकती हो...? तुम जहां कहीं भी हो, देखो यहां... देखो यहां हाना...! ये बादल छंट रहे हैं... पौ फ़ट रही है...हम अन्धेरे से निकल कर उजाले में आ रहे हैं... हम एक नई दुनिया में आ रहे हैं... एक ज्यादा रहमदिल दुनिया में... जहां आदमी अपने लालच,घृणा और नृशंसता से ऊपर उठेगा, देखो हाना, मनुष्य की आत्मा को पंख मिल गये हैं... और अंतत: उसने उड़ने की शुरुआत कर दी है... वह इन्द्रधनुष में उड़ रहा है... उम्मीदों की रौशनी में – देखो हाना देखो....!

सौजन्य

कुमार विजय

“सांचिया”

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